॥ श्री साईं अमृतोपदेश ॥
आत्मचिंतन:
अपने आपकी पहचान करो, कि मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है|
विनम्रता:
जब तक तुममें विनम्रता का वास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के प्रिय शिष्य नहीं बन सकते और जो शिष्य गुरु को प्रिय नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता|
क्षमा:
दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूले क्षमा करता है|श्रद्धा और सबुरी (धीरज और विश्वास): पूर्णश्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु का पूजन करो समय आने पर मनोकामना भी पूरी होंगी|
कर्मचक्र:
कर्म देह प्रारम्भ (वर्तमान भाग्य) पिछले कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ेगा, गुरु इन कष्टों को सहकर सहना सिखाता है, गुरु सृष्टि नहीं दृष्टि बदलता है|
दया:
मेरे भक्तों में दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरों पर दया करने का अर्थ है मुझे प्रेम करना चाहिए, मेरी भक्ति करना|
संतोष:
ईश्वर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) प्राप्त है, हमें उसी में संतोष रखना चाहिए|सादगी, सच्चाई और सरलता: सदैव सादगी से रहना चाहिए और सच्चाई तथा सरलता को जीवन में पूरी तरह से उतार लेना चाहिए|
अनासक्ति:
सभी वस्तुएं हमरे उपयोग के लिए हैं, पर उन्हें एकत्रित करके रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है| प्रत्येक जीव में मैं हूँ: प्रत्येक जीव में मैं हूँ, सभी जगह मेरे दर्शन करो|
गुरु अर्पण:
तुम्हारा प्रतेक कार्य मुझे अर्पण होता है, तुम किसी दूसरे प्राणी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा व्यवहार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्यवहार जो दूसरों से होता है सीधा मेरे साथ होता है| यदि तुम किसी को गाली देते हो, तो वह मुझे मिलती है, प्रेम करते हो तो वह भी मुझे ही प्राप्त होता है|
भक्त: जो भी व्यक्ति पत्नी, संतान और माता-पिता से पूर्णतया विमुख होकर केवल मुझसे प्रेम करता है, वही मेरा सच्चा भक्त है, वह भक्त मुझमे इस प्रकार से लीन हो जाता है, जैसे नदियां समुद्र में मिलकर उसमें लीन हो जाती हैं|
एकस्वरुप:
भोजन करने से पहले तुमने जिस कुत्ते को देखा, जिसे तुमने रोटी का टुकड़ा दिया, वह मेरा ही रूप है| इसी तरह समस्त जीव-जन्तु इत्यादि सभी मेरे ही रूप हैं| मैं उन्ही का रूप धरकर घूम रहा हूं| इसलिए द्वैत-भाव त्याग के कुत्ते को भोजन कराने की तरह ही मेरी सेवा किया करो|
कर्त्तव्य:
विधि अनुसार प्रतेक जीवन अपना एक निश्चित लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भाव से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन निर्विकार नहीं हो सकता यानि वह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पने का अधिकारी नहीं हो सकता|लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
लोभ (लालच):
लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
दरिद्रता:
दरिद्रता (गरीबी) सर्वोच्च संपत्ति है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बादशाह है| फकीर का नाश नहीं होता, लकिन अमीर का साम्राज्य शीघ्र ही मिट जाता है|
भेदभाव:
अपने मध्य से भेदभाव रुपी दीवार को सदैव के लिए मिटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसलिए मैं कौन हूं? इस प्रशन के साथ सदैव आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करो| वैसे जो बिना किसी भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वे सच में बड़े महान होते हैं|
मृत्यु:
प्राणी सदा से मृत्यु के अधीन रहा है| मृत्यु की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदि तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ईश्वर हो और उससे भिन्न नहीं हो| वास्तव में किसी भी प्राणी की मृतु नहीं होती| वह अपने कर्मों के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यक कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जीवात्मा भी अपने पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है|
ईश्वर:
उस महान् सर्वशक्तिमान् का सर्वभूतों में वास है| वह सत्य स्वरुप परमतत्व है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषण एवं विनाश करने वाला एवं कर्मों के फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सत्य साईं का अंश धारण करके इस धरती के प्रत्येक जीव में वास करता है| चाहे वह विषैले बिच्छू हों या जहरीले नाग-समस्त जीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं|
ईश्वर का अनुग्रह:
तुमको सदैव सत्य का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ करना चाहिए और दिए गए वचनों का सदा निर्वाह करना चाहिए| श्रद्धा और धैर्य सदैव ह्रदय में धारण करो| फिर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा|
ईश्वर प्रदत्त उपहार:
मनुष्य द्वरा दिया गया उपहार चिरस्थायी नहीं होता और वह सदैव अपूर्ण होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जीवन अपने पास सहेजकर सुरक्षित नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार प्रत्तेकप्राणी को देता है वह जीवन भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुमिरन, सेवा, सत्संग की तुलना मनुष्य प्रदत्त किसी उपहार से नहीं हो सकती है|
ईश्वर की इच्छा:
जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की शरण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता|
आत्मसमर्पण:
जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित हो चुका है, जो श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदैव याद करता है और जो निरन्तर मेरे इस स्वरूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष प्रदान करना मेरा विशिष्ट गुण है|
सार-तत्त्व:
केवल ब्रह्म ही सार-तत्त्व है और संसार नश्वर है| इस संसार में वस्तुतः हमार कोई नहीं, चाहे वह पुत्र हो, पिता हो या पत्नी ही क्यों न हो|
भलाई:
यदि तुम भलाई के कार्य करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरण करेगी|
सौन्दर्य:
हमको किसी भी व्यक्ति की सुंदरता अथवा कुरूपता से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके रूप में निहित ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए|
दक्षिणा:
दक्षिणा (श्रद्धापूर्वक भेंट) देना वैराग्ये में बढोत्तरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भक्ति की वृद्धि होती है|
मोक्ष:
मोक्ष की आशा में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु-चरणों की सेवा अनिवार्य है|
दान:
दाता देता है यानी वह भविष्य में अच्छी फसल काटने के लिए बीज बोता है| धन को धर्मार्थ कार्यों का साधन बनाना चाहिए| यदि यह पहले नहीं दिया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतएव पाने के लिए उत्तम मार्ग दान देना है|
सेवा:
इस धारणा के साथ सेवा करना कि मैं स्वतंत्र हूं, सेवा करूं या न करूं, सेवा नहीं है| शिष्य को यह जानना चाहिए कि उसके शरीर पर उसका नहीं बल्कि उसके 'गुरु' का अधिकार है और इस शरीर का अस्तित्व केवल 'गुरु' की सेवा करने में ही सार्थक है|
शोषण:
किसी को किसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाहिए| काम करने वाले को उसके काम के बदले शीघ्र और उदारतापूर्वक पारिश्रमिक देना चाहिए|
अन्नदान:
यह निश्चित समझो कि जो भूखे को भोजन कराता है, वह वास्तव में उस भोजन द्वारा मेरी सेवा किया करता है| इसे अटल सत्य समझो|
भोजन:
इस मस्जित में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, फिर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ बांध लो|
बुद्धिमान:
जिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान मिल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किया करता| भगवान की दया के अभाव में व्यक्ति अनावश्यक बातें करता है|
झगड़े:
यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गालियां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदि तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापूर्वक शब्द बोलो अथवा उस स्थान से हट जाओ, लेकिन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो|
वासना:
जिसने वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त की है, उसे प्रभु के दर्शन (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता|
पाप:
मन-वचन-कर्म द्वारा दूसरों के शरीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है|
सहिष्णुता:
सुख और दुख तो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं| इसलिए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे उसे अविचल रहकर सहन करो|
सत्य:
तुम्हें सदैव सत्य ही बोलना चाहिए| फिर चाहे तुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा|
एकत्व:
राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किंचित मात्र भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ मिला और दोनों समुदायों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए| बुद्धिमानी के साथ एक-दूसरे से व्यवहार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा कर पाओगे|
अहंकार:
कौन किसका शत्रु है? किसी के लिए ऐसा मत कहो, कि वह तुम्हारा शत्रु है? सभी एक हैं और वही हैं|
आधार स्तम्भ:
चाहे जो हो जाये, अपने आधार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदैव उसके साथ एककार रूप में रहकर स्थित रहो|
आश्वासन:
यदि कोई व्यक्ति सदैव मेरे नाम का उच्चारण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा| यदि वह निष्ठापूर्वक मेरी जीवन गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदैव उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदैव उपस्थित रहूंगा|
मन-शक्ति:
चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्थित बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्थित रहकर शांतिपूर्वक अपने सामने से गुजरते हुए सभी वस्तुओं के दृश्यों के अविचलित देखते रहो|
भक्ति:
वेदों के ज्ञान अथवा महान् ज्ञानी (विद्वान) के रूप में प्रसिद्धि अथवा औपचारिकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्व नहीं है, जब तक उसमे भक्ति का योग न हो|
भक्त और भक्ति:
जो भी कोई प्राणी अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बाद, निष्काम भाव से मेरी शरण में आ जाता है| जिसे मेरी भक्ति बिना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ|
भाग्य:
जिसे दण्ड निर्धारित है, उसे दण्ड अवश्य मिलेगा| जिसे मरना है, वह मरेगा| जिसे प्रेम मिलना है उसे प्रेम मिलेगा| यह निश्चित जानो|
नाम स्मरण:
यदि तुम नित्य 'राजाराम-राजाराम' रटते रहोगे तो तुम्हें शांति प्राप्त होगी और तुमको लाभ होगा|
अतिथि सत्कार:
पूर्व ऋणानुबन्ध के बिना कोई भी हमारे संपर्क में नहीं आता| पुराने जन्म के बकाया लेन-देन 'ऋणानुबन्ध' कहलाता है| इसलिए कोई कुत्ता, बिल्ली, सूअर, मक्खियां अथवा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत|
गुरु:
अपने गुरु के प्रति अडिग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जितने कम गुण हों|
आत्मानुभव:
हमको स्वंय वस्तुओं का अनुभव करना चाहिए| किसी विषय में दूसरे के पास जाकर उसके विचार या अनुभवों के बारे में जानने की क्या आवश्यकता है?
गुरु-कृपा:
मां कछुवी नदी के दूसरे किनारे पर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किनारे पर| कछुवी न तो उन बच्चों को दूध पिलाती है और न ही उष्णता प्रदान करती है| पर उसकी दृष्टिमात्र ही उन्हें उष्णता प्रदान करती है| वे छोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करने के अलावा कुछ नहीं करते| कछुवी की दृष्टि उसके बच्चों के लिए अमृत वर्षा है, उनके जीवन का एक मात्र आधार है, वही उनके सुख का भी आधार है| गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी प्रकार के हैं|
सहायता: जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण विश्वास करेगा और जब भी वह अपनी मदद के लिए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्वयं ही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी प्रकार यदि कोई तुमसे कुछ मांगता है और वह वास्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्य तुममे है और तुम उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सकते हो तो वह वस्तु उसे दो| मना मत करो| यदि उसे देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापूर्वक इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध करो| ऐसा करना साईं के आदेश पर चलने के समान है| विवेक: संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं - अच्छी और आकर्षक| ये दोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के लिए उसे आकर्षित करती हैं| उसे सोच-विचार कर इन दोनों में से कोई एक वस्तु का चुनाव करना चाहिए| बुद्धिमान व्यक्ति आकर्षक वस्तु की उपेक्षा अच्छी वस्तु का चुनाव करता है, लेकिन मूर्ख व्यक्ति लोभ और आसक्ति के वशीभूत होकर आकर्षक या सुखद वस्तु का चयन कर लेता है और परिणामतः ब्रह्मज्ञान (आत्मानुभूति) से वंचित हो जाता है| जीवन के उतार-चढ़ाव: लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु-भगवान के हाथों में है, लेकिन लोग कैसे उस भगवान को भूल जाते हैं, जो इस जीवन की अंत तक देखभाल करता है| सांसारिक सम्मान: सांसारिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर भ्रमित मत हो| इष्टदेव के स्वरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे मानस पटल पर सदैव अंकित रहना चाहिए| अपनी समस्त एन्द्रिक वासनाओं और अपने मन को सदैव भगवान की पूजा में निरंतर लगाये रखो| जिज्ञासा प्रश्न: केवल प्रश्न पूछना ही पर्याप्त नहीं है| प्रश्न किसी अनुचित धारणा से या गुरु को फंसाने और उसकी गलतियां पकड़ने के विचार से या केवल निष्किय अत्सुकतावश नहीं पूछे जाने चाहिए| प्रश्न पूछने के मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति अथवा आध्यात्मिक के मार्ग में प्रगति करना होना चाहिए| आत्मानुभूति: मैं एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारणा केवल कोरा भ्रम है और इस धारणा के प्रति प्रतिबद्धता ही सांसारिक बंधनों का मुख्य कारण है| यदि सच में तुम आत्मानुभूति के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारणा और आसक्ति का त्याग कर दो| आत्मीय सुख: यदि �